सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

ये डायन झोपड़े में क्यों जाती है?

कुछ दिनों पहले मेरे एक मित्र फकीरचंद के साथ अजीब-ओ-ग़रीब वाक़िया हुआ। उसके छोटे से गांव के बहुत ही छोटे से मोहल्ले में एक डायन जैसी बूढ़ी महिला रहने को आई। फकीरचंद उस बुढ़िया को देखकर ही डर जाता, लेकिन वह कर भी क्या सकता था? सो उसने हमदर्दी दिखाते हुए उस बूढ़ी महिला से पूछ ही लिया। अम्मा आप कहां से आई हो? पर बुढ़िया उससे बात करने तक को तैयार नहीं हुई। ऊपर से उसे घूरते हुए कह दिया। तुम रहने वाले ज़रूर छोटे से गांव के हो, लेकिन तुम धनवान हो। इसलिए मेरे और तुम्हारे बीच बातचीत का कोई भी मकसद नहीं हो सकता। यह सुनकर मेरा दोस्त चुप हो गया और वहां से चले जाने में भी भलाई समझी।

अचानक एक दिन फकीरचंद ने सुना कि उसके पड़ोस करोड़ीमल ने अपने आप को कंगाल घोषित कर दिया। यूं तो करोड़ीमल पहले ही मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया थे, लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ, जो उन्होंने अपने आप को कंगला साबित कर दिया? मेरे मित्र फकीरचंद को ये बात रास नहीं आई, और उसने इसके पीछे की सच्चाई जानने की कोशिश की। फकीरचंद को पता चला कि करोड़ीमल के घर पर रोज़ कोई बुढ़िया आती है, और उससे उसके ईष्ठ देवता के नाम पर कुछ-न-कुछ ले ही जाती है। बेचारा करोड़ीमल करता भी क्या? अपनी दान वीरता भी तो उसे समाज में साबित करनी ही थी। लेकिन बड़ा सवाल ये सामने आया कि एक बुढ़िया अगर उससे रोज़ कुछ ले जाती है। तब भी वो अपने आप को कंगाल कैसे साबित कर सकता है? सो फकीरचंद ने इस बात को गहराई से जानने की कोशिश की।

फकीरचंद ने आखिरकार इस बात का पता लगा ही लिया कि करोड़ीमल की कंगाली के पीछे कौन सी बुढ़िया का हाथ है? लेकिन हैरत में डालने वाली यह बात सामने आई, कि वह वही बुढ़िया है जिसने फकीरचंद को धनवान होने की दुत्कार लगाते हुए बात न करने की नसीहत दी थी। अब फकीरचंद ने ठान ही लिया, कि उस डायन जैसी बुढ़िया के कारनामों की परत खोल कर ही दम लेगा।

एक दिन फकीरचंद ने डायन बुढ़िया को रास्ते में ही रोक लिया। और पूछ बैठा तुम कौन हो?... तुम्हे आज बताना ही पड़ेगा। बूढ़ी महिला ने अपने डायन जैसे मुख पर भूतैली हंसी लाते हुए कहा, तुम जानकर भी क्या करोगे फकीरचंद? क्योंकि मेरी असलियत का असर सिर्फ मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय लोगों पर ही पड़ता है। फकीरचंद हैरान था कि बुढ़िया को उसका नाम भी पता है। और ये भी पता है कि उसके पास बहुत रुपए हैं। फिर भी फकीरचंद ने हिम्मत करते हुए उससे कहा कि जब तुम्हें मेरे बारे में सब पता है, और तुम्हें इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता, तो अपने बारे में खुलासे से क्यों डरती हो? आखिरकार बुढ़िया ने फकीरचंद की उत्सुकता को शांत करने के लिए कह ही दिया। तुम रात के वक्त मिलना, जब सारा बाज़ार बंद हो जाए। मैं तुम्हें अपने बारे में सब कुछ बता दूंगी।

तय समय के अनुसार फकीरचंद और बुढ़िया रात में एक-दूसरे से मिले। बुढ़िया ने बताया कि वो कोई साधारण बुढ़िया नहीं है। बल्कि वो इस देश पर हावी महंगाई है। जो अमीरों को सिर्फ डायन जैसी दिखती है। लेकिन उसका असर सिर्फ मध्यम और निम्न वर्गीय परिवार पर ही पड़ता है। बुढ़िया ने खुलासा किया कि करोड़ीमल मध्यम वर्गीय परिवार का मुखिया था। और उसकी दान वीरता की प्रवृत्ति ही उसे कंगाल बनाने में सफल हो गई। दरअसल करोड़ीमल अगर दान या इधर-उधर के खर्च से बचता तो रुपए बचाने की आदत उसमें आती, और वो अपने नाम की तरह धनवान बन सकता था। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। रही बात फकीरचंद तुम्हारी तो तुमसे मैं घबराती हूं। क्योंकि मैं कितनी भी कोशिश करूं तुम्हे लूट नहीं सकती। आखिर मुझे जन्म तुम जैसे लोगों ने ही तो दिया है। तुम अपना रुपया-पैसा अपने देश में नहीं रखते। जिसकी वजह से बार-बार मेरी नींद खुलती है। और मैं गरीबों के आशियानों तक पहुंच जाती हूं। रही बात तुम जैसे लोगों के काम की, तो जमाखोरी, कालाबाजारी, चीज़ों के दाम बढ़ाना तुम्हारी रोज़ी है। ऐसे में मैं सिर्फ गरीबों पर ही तो असर डाल सकती हूं।

फकीरचंदः महंगाई माता आप तो शहरों के मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय लोगों के इलाकों में भी रह सकती हो। फिर गांव के गरीब ही तुम्हें क्यों दिखाई देते हैं।

महंगाईः बड़े शहरों में गरीबों के लिए बनाए गए आशियाने हमेशा धनवान, राजनीतिक लोग घोटाला करके खरीद लेते हैं। ऐसे में मेरा वहां रहना किसी को भी रास नहीं आने वाला। इसलिए मुझे सिर्फ गांव नज़र आए, जहां सच्चे गरीब रहते हैं। खैर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? चार दिन तुम उनकी बेबसी पर साथ हो लोगे, पर आगे तो अपना ही काम करोगे। और तुम्हारा यही काम मुझे बार-बार जन्म देता रहेगा।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

जुगाड़ की महिमा


बात करीब 1995 की है, जब अमेरिका से एक डेलिगेशन भारत इसलिए आया ताकि यहां के खराब हो चुके कम्प्यूटर्स को सुधारा जा सके। चूंकि यह पहला साल था जब कम्प्यूटर को ग्राफिक्स यूजर इंटरफेस बनाया गया था। इसलिए भारतीय उद्योग जगत के लोग चाहते थे, कि इसे वही लोग सुधारें या इसमें नया कुछ डालें, जिन्होंने कम्प्यूटर बनाने की विधिवत ट्रेनिंग ली है। लेकिन भारतीय परंपरा के अनुसार कम्प्यूटर सुधारने की तकनीक एक जुगाड़ के सहारे पहले ही भारत में आ चुकी थी। सो कई ऐसे लोग यहां थे जो किसी न किसी तरह इस मशीन को सुधार देते थे।

जब कम्प्यूटर सुधाने के लिए अमेरिकी इंजीनियरों का दल भारत पहुंचा, तो उनका स्वागत कुछ ऐसा हुआ मानो अमेरिका के राष्ट्रपति किसी राजकीय यात्रा पर भारत आए हों। भव्य समारोह में उद्योग जगत के लोगों ने भारतीय समाज के सामने उन्हें कम्प्यूटर का भगवान बनाकर पेश कर दिया। लेकिन... चूंकि कम्प्यूटर सुधारने की तकनीक पहले ही यहां पहुंच चुकी थी, सो कई लोगों ने इस स्वागत समारोह से किनारा कर लिया। दिल्ली में उतरा दल जब एक चार पहिए वाहन से आगरा की ओर रवाना हुआ, तभी उनके साथ एक घटना घट गई। और वो थी उनकी गाड़ी का मैंटनेंस के अभाव में खराब हो जाना। चूंकी सभी इंजीनियर थे, इसलिए सभी ने बारी-बारी गाड़ी को सुधाने की कोशिश की। लेकिन वे सभी असफल ही रहे। तभी रास्ते से एक ट्रक का हेल्पर गुजरता हुआ उनसे टकरा गया। विदेशी मेहमानों को मुसीबत में देख उससे रहा न गया। अपनी टूटी-फूटी भाषा में उसने पूछ ही लिया...

हेल्परः साहेब गाड़ी खराब हो गई है क्या?... हां विदेशी मेहमानों ने मुंह बनाकर उससे बात की।

हेल्परः क्या मैं आपके लिए कुछ कर सकता हूं?... नहीं हम सब इंजीनियर हैं, और इस गाड़ी को देख चुके हैं कहीं कोई खराबी नहीं है, बस जरूरत है इसे कंपनी में भेजकर दोबारा तैयार किया जाए

लेकिन हेल्पर का दिल नहीं माना और उसने मेहमानों की मदद करना अपना फर्ज समझकर गाड़ी पर हाथ लगा ही दिया। और ये क्या…! सेल्फ से दो तारों को निकालकर दांतों से छीलकर उसने दोनों को आपस में टकराया... और गाड़ी शुरू हो गई…! फिर क्या था विदेशी मेहमानों से रहा नहीं गया और उससे पूछ ही लिया ये तुमने कैसे किया?

बस साहेब थोड़ा सा जुगाड़ लगाया और गाड़ी शुरू हो गईहेल्पर ने भारतीय सभ्यता के अनुसार मुस्कुराते हुए विदेशी मेहमानों को जवाब दे दिया। लेकिन विदेशी मेहमानों को उसकी जुगाड़ वाली टेक्नोलॉजी इतनी भा गई, कि उन्होंने अपने देश के राष्ट्रपति को फोन लगाकर इस तकनीक को भारत से मंगाने की मांग कर डाली। अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने देश के आभामंडल के अनुसार इस तकनीक को भारत से मांगने में थोड़ी झिझक महसूस की।

विदेशी मेहमान अपने वास्तविक काम को अंजाम देने के लिए आगरा की एक फर्म पहुंचे। यहां उन्हें एक ऐसे कम्प्यूटर को सुधारना था जो पिछले डेढ़ साल से बंद था। और कंपनी के मालिक चाहते थे, कि इस सिस्टम को इसके भगवान ही सुधारें। हुआ भी कुछ ऐसा ही, विदेशी मेहमान वहां पहुंच ही गए। लेकिन कई घंटों की मशक्कत के बाद भी वे कम्प्यूटर को दोबारा शुरू करने में असफल रहे। थक हारकर उन्होंने कम्प्यूटर को विदेश ले जाकर सुधारने का मन बनाया। लेकिन तभी कंपनी में कम्प्यूटरों का मैंटनेंस रखने वाला एक बांइडर वहां पहुंचा, और उसने इंजीनियरों से कम्प्यूटर सुधारने की अनुमति मांगी। लेकिन इंजीनियरों को उसकी यह हरकत मुंह पर की गई बेज्जती सी महसूस हुई। तब भी उन्होंने गुस्से में उसे कम्प्यूटर को देख लेने की इजाज़त दे दी।

बाइंडर ने भी कम्प्यूटर का CPU खोला और उसके SMPS पर दो-तीन हाथ जमा दिए। और क्या था कम्प्यूटर से एक बीप निकली, यानि कम्प्यूटर शुरू हो चुका था। विदेशी मेहमानों ने इसे देखकर भी हैरत की, और पूछ ही लिया ये तुमने कैसे किया?”

बाइंडरः बस सर थोड़ा सा जुगाड़ लगाया और कम्प्यूटर शुरू हो गया।

अब विदेशी इंजीनियरों ने इस तकनीक को अमेरिका ले जाने की ठान ही ली, और उन्होंने दोबारा राष्ट्रपति को फोन लगाकर सारी बातें बताईं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी महसूस किया कि उन्हें आभामंडल का मोह छोड़कर भारतीय प्रधानमंत्री से बात करनी चाहिए। तब उन्होंने फोन पर भारतीय प्रधानमंत्री से जुगाड़ तकनीक की मांग की। लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने इस तकनीक को अमेरिका को देने से इंकार कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति को यह बात नागंवार गुजरी, और उन्होंने भारत से सारे संबंधों को तोड़ने की बात कह डाली। तब भारतीय प्रधानमंत्री ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा- आदरणीय प्रेसिडेंट साहब भारत की जुगाड़ तकनीक किसी को नहीं दी जा सकती। क्योंकि ये ऐसी तकनीक है। जिसके सहारे आजादी के बाद से भारत चल रहा है। अब देखिए न हमारे यहां रक्षा क्षेत्र हो या अंतरिक्ष अन्वेषण का क्षेत्र, सभी में जितनी भी खोज की जा रही है, वो सब इसी तकनीक की ही तो देन है। अगर हम इसे आपको दे देंगे तो हमारे पास बचेगा ही क्या?”

प्रेसिडेंटः आदरणीय प्रधानमंत्री जी हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हैं। अगर आप तकनीक नहीं देना चाहते तो न सहीं, लेकिन हमारी भी एक विनती है, इस तकनीक से काम करने वाले मेहनतकशों को आप अमेरिका भेजें। ताकि हमारा देश प्रगति करे और आपका काम भी निकल जाए।

प्रधानमंत्रीः प्रेसिडेंट साहब ये हमारे संबंध और तकनीक के मेल को बनाए रखने वाला बीच का रास्ता है, जो आपने चुना है। हम इस पर ज़रूर काम करेंगे क्योंकि ये ह्यूमन आउटसोर्सिंग का जुगाड़ है।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

चंपू कबाड़ी और टीला रिमझिम का आभामंडल खेल


चंपू कबाड़ी और टीला रिमझिम दोनों इतने करीबी हैं, कि दोनों को एक-दूसरे के प्रति की गई दूसरों की छींटा-कसी भी नहीं भाती। यही वजह रही कि दोनों जब ज्यूपिटर ग्रह पर गए, तो उन्होंने किसी की भी बात पर ध्यान नहीं दिया। मसलन आम लोगों ने उन्हें चेताया, कि परग्रह पर जाना खतरे से खाली नहीं है। वहां किसी भी तरह की गड़बड़ी हुई, तो आप दोनों की मित्रता भी टूट सकती है। लेकिन दोनों ने किसी भी बात की परवाह किए बिना, ज्यूपिटर ग्रह में जाने का निवेदन स्वीकार किया। इसकी एक खास वजह भी थी। वह ये कि दोनों ही अमूमन एक जैसे ही थे। दोनों की विचारशीलता, काम करने का तरीका, लोगों के परिचय का अंदाज करीब-करीब सभी एक जैसा था। हालांकि दोनों को वहां अलग-अलग मकसद से बुलाया गया था, लेकिन वे अपने काम साधने में इतना महारत हासिल कर चुके थे, कि एक ही काम को दो तरीके से कर सकते थे।
टीला और कबाड़ी के ज्यूपिटर ग्रह में पहुंचने से पहले ही, उनके स्वागत की भव्य तैयारियां हो गईं। दोनों के कदम जैसे ही ज्यूपिटर की पावन धरा पर पड़े। लोगों में साहस बंध गया कि अब वे सारे काम पूरे हो जाएंगे, जिसके लिए इन महान विभूतियों को बुलाया गया है। दोनों ने ज्यूपिटर के वासियों से वे सारे वादे किए, जिससे उनके विश्वास को बल मिले। टीला और कबाड़ी ने ज्यूपिटर की सरकार का दिया हुआ पद भी ग्रहण किया, और सौगंध उठाई कि वे जिस कार्य के लिए यहां आए हैं, उसे पूर्ण किए बिना चैन से नहीं बैठेंगे। दोनों ने अपने कार्य को परिणति तक पहुंचाने के लिए कई भर्तियां भी कर डालीं। भर्ती हुए अधिकारियों में कुछ लोग ऐसे थे, जिन्हें इन दोनों विभूतियों के साथ कार्य करने का पहला अवसर प्राप्त हुआ। जबकि कुछ आयात किए हुए ऐसे अधिकारी थे। जो कबाड़ी और टीला बहिन जी की कर्तव्यनिष्ठा से पहले ही परिचित थे।
मैडम रिमझिम और मिस्टर चंपू ने सबसे पहले अपने अधिकारियों के साथ एक बैठक में उन्हें वे सारी गाइड लाइंस दे दीं, जिसके तहत उन्हें अपने कामों को देखना था। फिर क्या था, सारे अधिकारियों ने अपने-अपने काम के लिए एक बजट का खाका तैयार कर लिया। जिसे जोड़कर ज्यूपिटर सरकार को सौंप दिया गया। यानि सभी ने ऐसा माहौल निर्मित कर दिया, कि सरकार उतनी रकम खर्च करने को तैयार हो जाए। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। ज्यूपिटर सरकार ने अपने बजट भाषण में इस बात का ऐलान कर दिया, कि जिस काम के लिए आदरणीय टीला जी और कबाड़ी जी को बुलाया गया है। उस कार्य की पूर्णता के लिए उनके बनाए गए बिल पास किए जा रहे हैं।
टीला और कबाड़ी ने बिल के पास होते ही अपनी योजना को कार्य रूप में परिणित करना शुरू किया। कबाड़ी ने अपने दरबारी को ही अपना कोषाध्यक्ष घोषित कर दिया। और उसके माध्यम से टैंडर देने शुरू कर दिए। सारे टैंडर संबंधित ठेकेदारों को सौंप दिए गए, और सभी ने अपना काम शुरू कर दिया। वक्त बीतता गया। लोगों में इस बात का ढांढस बंधता गया, कि कबाड़ी जी और टीला जी जिस काम के लिए हमारे ग्रह में आए हैं, वो जल्द ही पूरा होने वाला है। लेकिन कुछ ही समय में एक ऐसा खुलासा हुआ, कि सभी के होशफाख़्ता हो गए। दरअसल टीला और कबाड़ी के अधीन जो अधिकारी काम कर रहे थे। वे करोड़ों रुपए की तो चाय ही पी गए। जबकि उन्होंने जिन चीज़ों की खरीदी की थी, वह भी पर ग्रह से आयात की गईं। जिसकी वजह से रुपयों का हिसाब-किताब गोल-मोल हो गया। हालांकि इस मामले के खुलने के बाद टीला जी और कबाड़ी जी की किरकिरी तो नहीं हुई, लेकिन उनसे लोगों का भरोसा उठने लगा।
टीला और कबाड़ी अब लोगों का विश्वास जीतने के लिए कई तरह से प्रयास में लग गए। कभी भाषणबाज़ी करते हुए ही दोनों कह देते, कि जो काम आप देख रहे हैं। वे कार्य की समय अवधि से दो कदम आगे है, लेकिन ज्यूपिटर की जनता की आंखों पर भी कोई पट्टी तो बंधी थी नहीं। वे दोनों को ज्यूपटर के सर्वोच्च न्यायलय तक लेकर चले गए। टीना और कबाड़ी को भी जब इस बात का एहसास हुआ, कि वे इस दुनिया के लोगों की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते, तो उन्हें अपनी योजना का खुलासा करना ही पड़ा। दरअसल टीला रिमझिम और चंपू कबाड़ी को इस ग्रह में बुलाया गया था एक ब्रम्हांड स्तरीय खेल का आयोजन कराने के लिए। जिसका नाम दिया गया था आभामंडल खेल। इस खेल के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई चंपू कबाड़ी को। जबकि आधारभूत संरचना की तैयारी करनी थी टीला बहिन जी को। जिसके लिए दोनों ने अपने विवेकानुसार अधिकारियों का पैनल तैयार किया। लेकिन इस पैनल ने वही किया, जो अपने देश में करते आए थे। यानि इन्होंने शुरू कर दिया तैयारियों से पहले का खेल। जिससे इनकी जेब गर्म हो जाए..., और हुआ भी कुछ ऐसा ही। सभी ने अपनी-अपनी तिजोरियां मोटी रकम से भर लीं।
टीला और कबाड़ी ज्यूपिटर की अदालत में अपने आप को निःसहाय से महसूस करने लगे। क्योंकि वे अपने देश में तो थे नहीं, कि कोई आभामंडल का नया ढोंग रच सकें। जैसे ही सरकारी वकील ने दोनों से एक सवाल किया। सफाई देने की बजाए दोनों ने सच्चाई उगल दी।
कबाड़ीः “ हे ज्यूपिटर ग्रह की न्यायमूर्ति मुझे अपने सारे गुनाह कबूल करने हैं। सबसे पहले तो मैं आपको ये बताना चाहूंगा, कि मेरा नाम चंपू कबाड़ी ही इसलिए पड़ा, क्योंकि मैं दूसरों को चूना लगाते रहा हूं, और तो और मैंने आज तक जिस काम को भी हाथ में लिया है। उसका कबाड़ा ही निकाला है। जबकि टीला बहिनजी का भी ऐसा ही कुछ हाल है। उनका नाम भी उन्हीं के काम के अनुरूप रखा गया है। मतलब ये कि आधारभूत संरचना का जब भी इन्हें काम मिलता, वे सबसे पहले तो इतनी खुदाई करवातीं, कि जगह-जगह पर मिट्टी के टीले बन जाते। जबकि उनके उपनाम में दशा झलकती है उनकी बनाई इमारतों की। जिसमें से बारिश की रिमझिम हमेशा जारी रहती है। अब रही हमारी कार्य योजना की बात, तो हे न्यायमूर्ति मैं आपको बताना चाहूंगा कि हमें जब भी ऐसे वैश्विक खेलों के आयोजन सौंपे गए। हमने सिर्फ आभामंडल के बारे में ही सोचा। हमें वह सब करना मंजूर हुआ, जिससे हमारा आधारभूत आभामंडल स्थापित हो। ताकि हमारा नाम देश की जनता कभी भुला न सके। “
टीलाः “ हे न्यायमूर्ति मैं भी आपसे अपने गुनाहों की क्षमा मांगती हूं। मैं भी आपसे कहना चाहती हूं, कि मैंने कबाड़ी का साथ आज तक इसलिए दिया क्योंकि हम जिस बिरादरी से हैं, उसमें अभामंडल का ही खेल ही खेला जाता है। मसलन हमारी धरा में एक ऐसी कौम है, जिसे नेता कहते हैं। इस कौम का काम है अपना आभामंडल तैयार करना। ताकि अपने क्षेत्र के साथ वे पूरे देश के भौतिक पटल पर अपना एक आभामंडल तैयार कर सकें। बस यही कारण था, कि आपने हमें जैसे ही आभामंडल खेल के लिए पावन ज्यूपिटर ग्रह से निमंत्रण दिया, हमने स्वीकार कर लिया। “
न्यायमूर्तिः “ आप दोनों की बातें सुनने के बाद मुझे इस बात का एहसास तो हो गया, कि आप लोगों से कोई गुनाह नहीं हुआ है। बल्कि हमसे एक बड़ी गलती हुई है। हमने आप दोनों को आभामंडल खेल के आयोजन के लिए बुलाया, ताकि ज्यूपिटर का ब्रम्हांड में नाम हो सके। लेकिन हमारे देश की सरकार का ये निर्णय गलत निकला। आपने तो हमारी धरा पर भी अपना आभामंडल तैयार कर लिया। इसलिए हे महान विभूतियों आप दोनों को हम वापस आपकी धरा के लिए विदा कर रहे हैं। ताकि वहां आपका आभामंडल और गहरा हो जाए। यानि आप वहां पर विख्यात हो जाएंगे कि ज्यूपिटर जैसे ग्रह में भी आपका आभामंडल तैयार हो चुका है। “

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

भीखा भीख क्यों मांगता है?


भीखा सिंह भिखारी के भेष में वही कर रहा है जो आम लोग भिखारी करते हैं। मतलब भीखा सड़कों पर कभी भगवान के नाम पर, तो कभी अल्लाह के नाम पर, या आम लोगों के पूज्य...(जैसे कि लोगों का भेष दिखता है) के नाम पर कुछ रुपए मांग रहा है। लेकिन बड़ी बात ये है कि भीखा भीख क्यों मांग रहा है?

दरअसल भीखा एक बड़े से महल जैसे घर में रहने वाला एक हष्ट-पुष्ट जवान है। जिसके पास अपनी एक कीमती कार भी है। अमूमन वह उसी से घर से बाहर निकलता है, और तो और जब भी उसमें बैठता है, एक नौकर फर वाले कपड़े से उसकी कार के दरवाज़े का हैंडल तक साफ करता है। आखिर भीखा की ये हालत हो कैसे गई ? क्या भीखा अपना सब कुछ जुए में हार गया ? शायद नहीं...! सोचता हूं इसका पता ही लगा लूं ।

भीखा को देखकर मैंने उसका पीछा किया। आखिर हर रोज़ वो मेरा हालचाल पूछ लेता था, सो मेरा भी कोई फर्ज़ तो बनता ही है। लेकिन भीखा को पता नहीं कैसे मेरे वहां होने की भनक लग गई। अब उसने मुझसे पीछा छुड़ाना ही एक रास्ता चुन लिया। पहले मुझे लगा कि अगर मैं उसका पीछा कर रहा हूं, और वह मुझसे भागने की कोशिश कर रहा है, तो कहीं उसका समय न मार खा रहा हो। लेकिन मेरा दिल नहीं माना, और मैं उसका तेज़ी से पीछा करने लगा। जब मैं भीखा के बिलकुल पीछे पहुंचा, तो वो और तेज़ भागने लगा। मैंने उसे आवाज़ दी, लेकिन उसने अनसुनी कर दी, और चलता चला गया। मुझसे भी रहा न गया, और मैं भी उससे ज्यादा तेज़ी से दौड़ा। एक मोड़ पर मैंने उसे ऐसे पकड़ा कि हमारा आमना-सामना हो गया। लेकिन वो अपने आप को बचाते हुए मुझसे छिपने लगा। मैं जैसे ही उसे देखता, वह अपना मुंह छिपा लेता। जब मैं दाएं देखता, उसका मुंह बायीं तरफ हो जाता। मुझसे रहा न गया। मैंने उससे पूछ ही लिया, क्या तुम भीखा हो? उसने बड़ी सफाई से बचने की कोशिश करते हुए कहा नहीं भाई मैं कोई भीखा-वीखा नहीं हूं, मैं एक भिखारी हूं जो अपनी दो जून की रोटी के लिए कहीं भी हाथ फैलाने से नहीं हिचकता।लेकिन मुझसे तब भी न रहा गया, मैं उससे उगलवाना चाहता था कि वो वही भीखा है, जो महंगी सी कार में घूमता है, जिसके कपड़े देखकर हर किसी को जलन होती है, जिसका घर देखकर हर किसी को लगता है कि उसका अपना आशियाना भी कुछ ऐसा ही हो। लेकिन मैं उससे ये सारी बातें उगलवाने में नाकाम ही साबित हुआ। लेकिन मुझे इन सब बातों से पार पाना था, सो मैं उससे दूर हटकर उस पर नज़र रखने लगा। काफ़ी मशक्कत करने के बाद मुझे एक उम्मीद की किरण नजर आई, और वह थी भीखा की महंगी कार।

अचानक ही चमचमाती कार भिखारी के सामने रुकी। भिखारी उसमें बैठ गया। तभी सामने आकर मैंने कार को रुकने पर मजबूर कर दिया। तब मैं कार के दरवाज़े पर जाकर खड़ा हुआ, और भीखा को रंगे हाथों पकड़ लिया। तब भीखा को अपनी इस दशा के बारे में मुझसे न चाहते हुए भी कहना ही पड़ गया।

भीखाः मैं कोई करोड़पति या उद्योगपति नहीं हूं भाई। और मेरा नाम भीखा भी नहीं है। मेरा नाम है भारत की अर्थव्यवस्था। जो देखने में किसी विकसित देश से कम नहीं लगती, लेकिन उसकी आंतरिक स्थिति ही ऐसी है कि मैं एक भिखारी नज़र आने लगा। मुझे देखकर पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान जैसे छोटे देश ज़रूर जलते हैं। क्योंकि मेरा बाहरी आवरण ही ऐसा है, कि उसमें एक आभामंडल सा दिखाई देता है। लेकिन वास्तविकता उससे परे है। मेरे पास कार्यक्षमता बहुत ज्यादा है, लेकिन उसके उपयोग के पर्याप्त साधन से मैं हीन हूं। मेरा जो आडम्बर तुमने अभी तक देखा है, उसे भी व्यवस्थित रूप से दिखाने के लिए मुझे फिजूल का खर्च करना पड़ता है। सो मेरी हालत और भी गिरती जाती है। अगर तुम ये सोच रहे हो कि मेरी इस दशा का ज़िम्मेदार कौन है?... तो सुनो... मेरी ये दशा बनाई है उन लोगों ने जिन्हें तुमने अपना रहनुमा चुना है। उन्होंने अपना पेट भरने के लिए तुम्हारा पेट काट दिया। तुम पर कर्ज़ का बोझ बढ़ा दिया। अब मेरी निर्भरता तो तुम पर है। सो मेरे पास भीख मांगने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता बचा ही नहीं। अगर तुम मेरी इस हालत को वाकई सुधारना चाहते हो, तो तुम्हे ही सक्षम होना होगा। तभी मेरी हालत सुधर सकती है।